
उत्तर प्रदेश की 10 सीटों के लिए आज मतदान हुआ। एक सीट जीतने के लिए 37 वोटों की जरूरत थी। बीजेपी के पास 312 विधायक हैं। उसके सहयोगी दलों अपना दल (एस) (9) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (4) के पास कुल 13 विधायक हैं। बसपा के 19 विधायक हैं। सपा के पास 47 विधायक हैं। यूपी विधान सभा के मौजूदा समीकरण से साफ था कि बीजेपी के आठ उम्मीदवार और सपा के एक उम्मीदवार की जीत पक्की है। लड़ाई एक सीट पर ही थी, जिस पर बसपा ने भीमराव अंबेडकर को उतारा था।
सपा के एक विधायक हरि ओम यादव और बसपा के विधायक मुख्तार अंसारी जेल में होने की वजह से वोट नहीं दे पाए। मुख्तार अंसारी को पहले गाजीपुर की अदालत ने राज्य सभा चुनाव में वोट देने की अनुमति दे दी थी लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी। एक-एक विधायकों के जेल में होने की वजह से सपा और बसपा के पास क्रमशः 46 और 18 विधायक ही वोट देने के लिए उपलब्ध थे। सपा ने आधिकारिक तौर पर अपने बाकी विधायकों का समर्थन बसपा प्रत्याशी भीमराव अंबेडकर को देने की घोषणा की थी। बसपा को कांग्रेस के सात और रालोद के एक विधायक के समर्थन की उम्मीद थी। बसपा को निर्दलीय विधायकों के समर्थन की भी आस थी।
लेकिन शुक्रवार को जब मतदान शुरू हुआ तो एक-एक कर बसपा के लिए बुरी खबर आती रही। बसपा विधायक अनिल सिंह ने बीजेपी को वोट दे दिया। सपा विधायक नितिन अग्रवाल ने भी बीजेपी को वोट दिया। नितिन अग्रवाल के पिता नरेश अग्रवाल हाल ही में सपा से भाजपा में शामिल हुए थे। निषाद पार्टी के एकमात्र विधायक विजय मिश्रा ने बीजेपी को वोट दिया। निर्दलीय अमनमणि त्रिपाठी ने भी बीजेपी उम्मीदवार को वोट दिया। निर्दलीय विधायक और सपा सरकार में मंत्री रह चुके रघुराज प्रताप सिंह (राजा भैया) ने भी मीडिया से साफ कह दिया कि उन्होंने अखिलेश यादव के प्रत्याशी को वोट दिया है। राजा भैया ने ये भी साफ किया कि मायावती से उनकी पुरानी अदावत है। वोट देने के बाद राजा भैया सीएम योगी आदित्यनाथ से मिले भी। ये साफ हो गया कि राजा भैया ने दूसरी प्राथमिकता का वोट बसपा को नहीं दिया होगा। राजा भैया के बयान से ही उनके करीबी माने जाने वाले विधायक विनोद सरोज के रुख का भी अंदाजा लगा गया। बेला प्रतापगढ़ के विधायक विनोद सरोज भी राजा भैया के साथ मतदान से पहले हुए अखिलेश यादव की डिनर पार्टी में शामिल हुए थे। विनोद सरोज के राजा भैया से अलग राह पकड़ने की कोई उम्मीद नहीं थी।
राज्य सभा चुनाव में सभी विधायकों को प्रत्याशियों को प्राथमिकता के आधार पर वोट देना होता है। विधायकों के पहले पसंद के वोट से अगर जीत-हार का फैसला नहीं होता तो फिर ये देखा जाता है कि प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवारों को दूसरी पसंद के तौर पर कितने वोट मिले हैं और फिर दोनों को मिलाकर विजयी उम्मीदवार चुना जाता है। जाहिर है इस गणित का शिकार बसपा उम्मीदवार हो गये। इतने सब के बावजूद बीजेपी को अपने नौवें उम्मीदवार को जिताने के लिए सपा के विधायकों की क्रॉस-वोटिंग की जरूरत पड़ी होगी।
अब इस सवाल का सटीक जवाब मिलना मुश्किल है कि सपा अपने विधायकों को एकजुट नहीं रख पाई या बीजेपी ने उन्हें तोड़ लिया या सपा ने अंदरखाने बीजेपी से हाथ मिला लिया या विधायकों ने "अंतर-आत्मा" की आवाज सुन ली।
क्या इसे महज संयोग समझा जाए कि मंडल की राजनीति से निकली समाजवादी पार्टी और कमंडल की राजनीति से निकले भाजपा का इस चुनाव में जीत जाने और बसपा के भीमराव अंबेडकर के हार जाने का प्रतीकात्मक महत्व एक सीट से ज्यादा है।
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