मध्य प्रदेश : अप्रत्याशित रूप से राकेश सिंह के भाजपा अध्यक्ष बनने का क्या मतलब है?

मंथन न्युज भोपाल-
मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने प्रदेश इकाई की कमान तो राकेश सिंह को सौंपी है, लेकिन चुनाव अभियान समिति का संयोजक नरेंद्र सिंह तोमर को बनाया है



मध्य प्रदेश भाजपा के नए अध्यक्ष राकेश सिंह के साथ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान

‘कुछ प्रत्याशित और थोड़ा अप्रत्याशित’, भारतीय जनता पार्टी की मध्य प्रदेश इकाई में हुए संगठनात्मक परिवर्तन को अगर बेहद कम शब्दों को समेटें तो यही कहा जा सकता है. पार्टी के भीतर और बाहर यह संभावनाएं तो काफ़ी पहले से ज़ताई जा रही थीं कि प्रदेश इकाई की कमान नंदकुमार सिंह चौहान से वापस ली जानी है. प्रत्याशित ये भी था कि 2008 और 2013 की तरह इस बार भी शिवराज सिंह चौहान और नरेंद्र सिंह तोमर की जोड़ी के नेतृत्व में भी भाजपा चुनाव में उतरेगी. लेकिन यह अंदाजा कम ही लोगों को था कि नंदकुमार सिंह चौहान के उत्तराधिकारी जबलपुर लोक सभा क्षेत्र से तीन बार के सांसद राकेश सिंह बनेंगे. यह अप्रत्याशित था.


लिहाज़ा अब राजनीति के जानकार इस बदलाव पर तमाम टिप्पणियां कर रहे हैं. विश्लेषक इन्हें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए झटका बता रहे हैं तो पार्टी सूत्रों का कहना है कि यह सब एक रणनीति के तहत शिवराज का किया-कराया है. जबकि थोड़ा नज़दीक से देखें तो मामला पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व और शिवराज के बीच किसी समझौतेपूर्ण स्थिति की उपज कहीं ज़्यादा लगता है.

घटनाक्रम तेजी से बदला

इसी मंगलवार को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घोषणा की, ‘प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान पद छोड़ना चाहते हैं. वे अपने संसदीय क्षेत्र में ज़्यादा वक़्त देना चाहते हैं. लिहाज़ा उनके बाद अगला प्रदेश अध्यक्ष कौन होगा इस बारे में स्थिति बुधवार तक स्पष्ट हो जाएगी.’ उनकी तरफ़ से यह ख़ुलासा होते ही घटनाक्रम तेजी से बदला और संभावित नामों पर तरह-तरह की अटकलें लगाई जाने लगीं. प्रदेश भाजपा के ही अंदरूनी सूत्रों की मानें तो मंगलवार शाम-शाम तक भी दो नामों- नरोत्तम मिश्र और कैलाश विजयवर्गीय में से किसी एक का अध्यक्ष बनना तय माना जा रहा था.

कैलाश विजयवर्गीय के भोपाल स्थित बंगले पर तो समर्थकों की भीड़ लगनी भी शुरू हो गई थी. हिंदी महीने की तिथि के हिसाब से अक्षय तृतीया पर पड़ने वाला उनका जन्मदिन भी जोर-शोर से मनाने की तैयारी हो गई थी. हालांकि तारीख़ के हिसाब से उनका जन्म दिन 13 मई को है. मगर चूंकि अक्षय तृतीया पर ही प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर उनके नाम की घोषणा होने की संभावना थी इसलिए उनके समर्थकों का उत्साह दोगुना था.

बताया जाता है कि राष्ट्रीय नेतृत्व को भी कैलाश या नरोत्तम के नाम पर कोई खास आपत्ति नहीं थी. लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज इन दोनों को ही नहीं चाहते थे क्योंकि इन दाेनों नेताओं में ये पूरी संभावनाएं मौज़ूद हैं कि वे भविष्य में शिवराज के लिए चुनौती बन सकें. बल्कि पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव विजयवर्गीय तो एक तरह से बन ही चुके हैं. इसीलिए शिवराज चाहते थे कि उनका कोई विश्वस्त नेता ही प्रदेश अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी संभाले.

उच्च पदस्थ सूत्रों की मानें तो शिवराज ने इस सिलसिले में दो नाम आगे बढ़ाए थे. पहला- केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का क्योंकि इनके साथ मिलकर शिवराज 2008 और 2013 में पार्टी को विधानसभा और लोक सभा चुनावों में बड़ी जीत दिला चुके हैं. इनके साथ शिवराज का समन्वय, संवाद और संबंध सभी बेहतर हैं. लेकिन तोमर ख़ुद केंद्रीय मंत्री का पद छोड़कर प्रदेश इकाई की कमान संभालने से पीछे हट गए. क्यों? यह एक अलग मसला है. बहरहाल, शिवराज ने दूसरा नाम प्रदेश के गृह मंत्री भूपेंद्र सिंह का आगे बढ़ाया. भूपेंद्र इन दिनों शिवराज के दाहिने हाथ जैसे बने हुए हैं. लेकिन उनके नाम पर राष्ट्रीय नेतृत्व से हरी झंडी नहीं मिल सकी क्योंकि उनके साथ मंदसौर गोलीकांड का विवाद चस्पा है.राष्ट्रीय नेतृत्व ने नरोत्तम  मिश्रा  का नाम को हरी झडी दी इस पर शिवराज सिहं ने अफसोष जहिर किया नरोत्तम मिश्रा के बनने से शिवराज को कुछ न कुछ डर था नरोत्तम मिश्रा की जमिनी पकड अच्छी है ओर वो कार्यकर्ता मे जोश भर सकते है 

सूत्र बताते हैं कि इस स्थिति में शिवराज ने पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश भाजपा के सम्मानित नेता कैलाश जोशी की मदद ली. नेतृत्व से बातचीत हुई और राकेश सिंह का नाम आगे आया. नेतृत्व परिवर्तन के बाद कैलाश जोशी के बयान से भी स्पष्ट होता है कि इस प्रक्रिया में उनकी अहम भूमिका रही. उन्होंने नए प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति पर कहा, ‘संगठन की गाड़ी अच्छी चल रही थी लेकिन ड्राइवर (प्रदेश अध्यक्ष) सही नहीं था. इसलिए बदल दिया गया.’

राकेश सिंह लोक सभा में भाजपा संसदीय दल के मुख्य सचेतक हैं और इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के विश्वासपात्र हैं. उनके साथ कोई विवाद चस्पा नहीं है इसलिए आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) को भी उनके नाम पर आपत्ति नहीं थी. और वे महाकौशल से आते हैं जहां कांग्रेस की ओर से कमलनाथ मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में शुमार हैं. लिहाज़ा उनके नाम पर राष्ट्रीय नेतृत्व भी सहमत हो गया.

चुनाव की कमान पुराने खिलाड़ियों के हाथ

चुनावी साल में चूंकि राष्ट्रीय नेतृत्व शिवराज सिंह चौहान की नाराज़गी मोल लेने की स्थिति में नहीं है इसलिए उसने राकेश सिंह को प्रदेश संगठन की कमान सौंपी मगर चुनाव अभियान की नहीं. शिवराज के सहयोग के लिए नरेंद्र सिंह तोमर को ही तैनात किया. प्रदेश कार्यालय में मीडिया के सामने बुधवार को जब प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर राकेश सिंह के नाम का ऐलान हुआ उसी समय बताया गया कि चुनाव अभियान समिति भी बना दी गई है. इसके संयोजक केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर होंगे. और यहीं से स्पष्ट हो गया कि इस बार का चुनाव भी भाजपा के लिए असल में शिवराज और तोमर की जोड़ी ही लड़ेगी.

अलबत्ता पार्टी नेतृत्व के साथ मिलकर शिवराज ने जातीय और शक्ति संतुलन साधने की कोशिश भी की. इसके तहत चुनाव अभियान समिति में नरोत्तम मिश्र (ब्राह्मण), पूर्व केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते (अनुसूचित जनजाति) और लाल सिंह आर्य (अनुसूचित जाति) को सह-संयोजक बनाया गया. साथ ही कैलाश विजयवर्गीय, प्रह्लाद पटेल, भूपेंद्र सिंह (इस बार प्रदेश अध्यक्ष बनने के दावेदार), प्रभात झा, नंदकुमार सिंह चौहान (पूर्व प्रदेश अध्यक्ष) और माया सिंह (सिंधिया परिवार से ताल्लुक़ रखने वाली प्रदेश की मंत्री) को चुनाव अभियान समिति का सदस्य बना दिया गया.

इस क़वायद को विश्लेषक कैसे देख रहे हैं?

मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार शिवअनुराग पटैरया की मानें तो राकेश सिंह का अध्यक्ष बनना बताता है कि पार्टी नेतृत्व और शिवराज के बीच सब कुछ सहज नहीं है. ऐसा माना जा रहा है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह तो नरोत्तम मिश्र या कैलाश विजयवर्गीय को अध्यक्ष बनाना चाहते थे. जबकि शिवराज या तो नंदकुमार सिंह चौहान को ही बनाए रखना चाहते थे या फिर भूपेंद्र सिंह को कुर्सी सौंपने के पक्ष में थे. ऐसे में राकेश सिंह का नाम वैकल्पिक निरपेक्ष व्यवस्था के तहत सामने आया. यानी वे स्वाभाविक विकल्प नहीं हैं. इसलिए राकेश सिंह के सामने ख़ुद को साबित करने की चुनौती होगी. मुख्यमंत्री को भी उनसे तालमेल बिठाना होगा नहीं तो पार्टी को चुनाव में नुकसान भी हो सकता है.

द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की टिप्पणी भी कुछ ऐसी ही है. इसके मुताबिक बदलाव का यह पूरा घटनाक्रम बताता है कि शिवराज की पकड़ कमजोर नहीं तो ढीली ज़रूर हुई है. चुनाव बाद संभव है वे मुख्यमंत्री पद के लिए नेतृत्व की स्वाभाविक पसंद न रहें. उनकी जगह नरेंद्र सिंह तोमर या नरोत्तम   मिश्र का नाम  सामने आ जाए. उधर, प्रदेश के एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार गिरिजाशंकर साफ़ कहते है, ‘राकेश को पार्टी नेतृत्व ने प्रदेश की कमान ज़रूर सौंपी है, लेकिन उन पर पूरा भरोसा नहीं किया है. नरेंद्र सिंह तोमर को चुनाव अभियान समिति की कमान सौंपना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है. नहीं तो इस समिति के स्वाभाविक प्रमुख मुख्यमंत्री शिवराज या प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह ख़ुद ही हो सकते थे. फिर चुनाव समिति में जिस तरह नरोत्तम, विजयवर्गीय, कुलस्ते, प्रह्लाद आदि को सदस्य बनाया गया उससे भी साफ है कि सभी को साधने की कोशिश की जा रही है. लेकिन वे सधेंगे या नहीं यह देखना होगा.

इस मुद्दे पर इंडिया टुडे की टिप्पणी से भी स्पष्ट है कि राकेश सिंह का अध्यक्ष बनना मुख्यमंत्री के लिए झटका है क्योंकि वे शिवराज सिंह चौहान के साथ कदमताल शायद ही कर पाएं. इस टिप्पणी में 2014 के चुनाव का एक संदर्भ भी है. उस वक़्त राकेश सिंह ने पत्र लिखकर प्रधानमंत्री मोदी को बताया था कि शिवराज ने उस चुनाव के दौरान कांग्रेस प्रत्याशी विवेक तनखा को जिताने के लिए भितरघात की कोशिश की थी क्योंकि तनखा ने मुख्यमंत्री को डंपर घोटाले में कानूनी पचड़े से बचाया था.

यानी कुल मिलाकर अभी पार्टी नेतृत्व और शिवराज के बीच मामला बराबरी पर छूटा हुआ ज़्यादा दिखता है. पार्टी नेतृत्व ने 2008 और 2013 के पिछले अनुभवों को देखते हुए शिवराज और तोमर की जोड़ी के साथ चुनाव में उतरने पर रज़ामंदी दी है. वहीं शिवराज ने भी संगठन की कमान राकेश सिंह जैसे नेता काे सौंपने पर सहमति दी. मतलब न तुम जीते न हम हारे. ऐसे में जानकारों के मुताबिक यह संभावना भी मज़बूती से बनती है कि विधानससभा चुनाव के बाद अगर पार्टी फिर सरकार बनाने में क़ामयाब रही तो श्रेय लेने की होड़ हर तरफ़ ‘पहले मैं-पहले मैं’ वाले अंदाज़ में लग जाएगी. लेकिन अगर पार्टी का प्रदर्शन बिगड़ा तो उसका ठीकरा फोड़ने के लिए ‘किसी और के सिर’ (जाहिर है ये बाद में ही तलाशे जाएंगे) आगे किए जाएंगे. क्योंकि यह बदलाव ‘समझौतापूर्ण स्थिति की परिणति’ अधिक है न कि स्वाभाविक.