
इसकी वजह ये है कि कोई बयान कुछ भी दे, लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया औकमलनाथ अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं हैं. वहीं, खुद को सीएम की रेस से बाहर बता रहे दिग्विजय किसी को चेहरा बनाने की बजाय गुजरात की तर्ज पर सामूहिक नेतृत्व के फॉर्मूले पर लड़ने की सलाह दे रहे हैं.
दरअसल, सूत्रों की मानें तो सोनिया गांधी खुद कमलनाथ को सीएम उम्मीदवार बनाने के हक में रही हैं. सोनिया खेमे का तर्क है कि कमलनाथ सबको साथ लेकर चल सकते हैं. वह वरिष्ठ भी हैं और उनकी आखिरी पारी है. इसलिए सभी उनके साथ आसानी से आ जाएंगे. वहीं राहुल टीम सिंधिया के हक में रही है. उसका मानना है कि आज के दौर में युवाओं के बीच सिंधिया का आकर्षण है. जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं की पसंद वही हैं, इसलिए वही शिवराज का बेहतर विकल्प हो सकते हैं.
अरसे से इसी उधेड़बुन में रहने के बाद अब तक कोई फैसला नहीं हो सका है. ऐसे में कई दौर की बैठकें भी अब तक बेनतीजा साबित हुईं. मुख्यमंत्री का चेहरा तो तय नहीं हुआ उलटे राज्य के प्रभारी महासचिव मोहन प्रकाश को ही हटा दिया गया और उनकी जगह गुजरात से आने वाले दीपक बावरिया को प्रभारी महासचिव राहुल ने नियुक्त कर दिया.
उसके बाद भी तमाम कोशिशों के बाद अब तक कोई फैसला नहीं हो सका. वैसे सूत्रों के मुताबिक, कोई हल न निकलने की सूरत में राहुल ने दीपक बावरिया से राज्य के बड़े नेताओं की राय के आधार पर फैसला लेने को कहा. ऐसे में दिग्विजय सिंह की राय से राज्य के सात बड़े नेता सहमत दिखे. इनमें प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव, अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह, पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद कांतिलाल भूरिया, राहुल की करीबी मीनाक्षी नटराजन शामिल हैं. इस बात ने राहुल की सिरदर्दी और बढ़ा दी है.
वहीं, अपनी दावेदारी जता रहे कमलनाथ अकेले पड़ गए है. दूसरी ओर सिंधिया को सिर्फ सत्यव्रत चतुर्वेदी का साथ मिला. साथ ही सोनिया के करीबी सुरेश पचौरी ने खुद को विवाद से अलग रखते हुए सब कुछ आलाकमान पर छोड़ दिया. हालांकि, तमाम विधायकों और छोटे नेताओं ने सिंधिया के नाम पर सहमति जताई. लेकिन नेताओं की लामबंदी के चलते चेहरा घोषित करने के बजाय सामूहिक नेतृत्व के साथ चुनाव लड़ने की राय हावी हो गई. तर्क ये दिया गया कि अपने-अपने इलाके में सभी नेता ताकत झोंकें और जीतने पर जो ज्यादा अच्छा परफॉर्म करे, वही सीएम बने.
खास बात ये रही कि इस पूरी चर्चा और मंथन के दौरान दिग्विजय सिंह अपनी नर्मदा यात्रा से जुड़े रहे. वो कहते रहे हैं कि इस दौरान वो कोई राजनीति नहीं करेंगे और ना ही सियासी बयान देंगे. लेकिन पार्टी की अंदरूनी सियासत में वो पूरी तरह शामिल रहे. सूत्रों के मुताबिक, इस मुद्दे पर चर्चा के लिए वरिष्ठ वकील और सांसद विवेक तनखा ने आलाकमान और दिग्विजय के बीच पुल का काम किया. उन्होंने दिग्विजय से उनकी यात्रा के दौरान 14 बार जाकर मुलाकात की.
ऐसे में जब प्रभारी महासचिव दीपक बावरिया की रिपोर्ट के आधार पर राहुल ये मन बना रहे थे कि ज्यादा नेताओं की राय के साथ ही आगे बढ़ा जाए. तभी सिंधिया खेमे के सत्यव्रत ने बड़ा बयान देकर एक बार फिर मसले को हवा दे दी.
सत्यव्रत का दो टूक कहना है कि दिग्विजय कुछ भी कहें, लेकिन पार्टी को जल्दी से जल्दी सिंधिया को सीएम का उम्मीदवार घोषित करना चाहिए और कमलनाथ या उनकी पसंद के किसी नेता को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त करके चुनाव में उतरना चाहिए. यही सफलता का मन्त्र है. सत्यव्रत कहते हैं कि पिछले चुनाव की गलती पार्टी ना दोहराए. जब अनमने ढंग से चुनाव से एक महीने पहले सिंधिया को कैंपेन कमेटी का चेयरमैन नियुक्त किया गया और ये सन्देश देने की कोशिश की गई कि वो सीएम उम्मीदवार हैं, लेकिन वो सन्देश जनता तक पहुंचा ही नहीं.
कुल मिलाकर मध्य प्रदेश में 15 सालों से सत्ता से बाहर कांग्रेस अभी तक खुद फैसला नहीं कर पा रही है. खास बात यह है कि टीम राहुल से लेकर हर कोई काफी पहले से इस पर हामी भरता आया है कि मध्य प्रदेश में पार्टी जीत सकती है, बशर्ते फैसला जल्दी हो जाए.
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