परीक्षा का कोई विकल्प नहीं, यह हर शिक्षा प्रणाली का अंतिम परिणाम है

परीक्षा का कोई विकल्प नहीं, यह हर शिक्षा प्रणाली का अंतिम परिणाम हैपूनम पुरोहित मंथन न्यूज़ दिल्ली - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते हफ्ते परीक्षा पर चर्चा कार्यक्रम चालू कर एक अनोखी शुरुआत की है। उस समस्या की ओर पूरे देश का ध्यान खींचा है, जिससे हमारा समाज बुरी तरह प्रभावित है। इस कार्यक्रम के परिणाम आने में भले जितना वक्त लगे, पर यह जरूरी है कि हमारे नौजवान विद्यार्थी आत्मघाती कदम उठाने से बचकर तनावमुक्त जीवन जी सकें। यह सोचना-विचारना आज की परिस्थिति में जरूरी है। हालात इतने खराब हो चुके हैं कि नरेंद्र मोदी जब इस कार्यक्रम में देश भर के स्कूली बच्चों को संबोधित कर रहे थे, उसी समय कोटा में एक कोचिंग इंस्टीट्यूट के छात्र द्वारा आत्महत्या कर लेने की खबर आई। 21 वर्षीय राहुल पिछले साल ही जैसलमेर से मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने कोटा आया था।
साल 2018 के शुरुआती डेढ़ महीनों में अकेले कोटा शहर में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों द्वारा आत्महत्या करने का यह पांचवां मामला है। घर-परिवार को बर्बाद करने वाली यह र्दुव्‍यवस्था पिछले दशकों में पूरे देश में इस कदर फैल गई कि हजारों बच्चे अपने जीवन को खत्म कर चुके हैं। पूरे देश में छात्र परीक्षा की सफलता और असफलता के भंवर में पड़कर तनाव तथा निराशा में माहौल में आत्महत्या कर रहे हैं। पूरे संसार को ज्ञान-विज्ञान सिखाने वाले भारत में सुरसा के मुंह के जैसी फैल रही इस दुर्घटना के कारणों में हमारी नई शिक्षा पद्धति की अपनी भूमिका भी है। सैद्धांतिक पढ़ाई को भरपूर महत्व दिया जा रहा है, जिसके नीचे प्रायोगिक (प्रैक्टिकल) समझ दब कर रह गई है। प्रायोगिक अध्ययन व्यवस्था लुप्त-सी हो गई है।
दो-तीन घंटे की परीक्षा में जिसने जो लिखा, वही उस विद्यार्थी के मूल्यांकन का मानक हो गया है। इसी के आधार पर उसकी श्रेणी या ग्रेड तय हो रही है। उसके जीवन और नौकरी का आधार भी यह मूल्यांकन ही है। साथ ही सरस प्रायोगिक अध्ययन व्यवस्था को अनुपयोगी कर पढ़ाई को इतना नीरस बना दिया गया है कि छात्र परिणाम केंद्रित होकर अपने जीवन को सिर्फ ‘रिजल्ट’ में ही खोज रहा है। यदि उसका थोड़ा मनोरंजन हो भी रहा है तो वह भी गिरते चरित्र के संवादों या फिल्मों से। यह कितना आश्चर्य है कि एक स्कूली छात्र के रोल में मलयाली अभिनेत्री प्रिया प्रकाश का ‘आंख मारना’ देश में बड़ी बात हो गई! जरा सोचिए कि क्या यह कामुकता भरा दृश्य विद्यालयों के हालात सुधारने में मददगार साबित होगा?
ऐसा नहीं है कि परीक्षा की कोई जरूरत नहीं है। परीक्षा का कोई विकल्प नहीं है। वह हर शिक्षा प्रणाली का अंतिम परिणाम है। परीक्षा प्राचीन गुरुकुल पद्धति से चली आ रही शिक्षा प्राप्ति के बाद श्रेष्ठ तथा अश्रेष्ठ का विभाजन करने वाली एक अनिवार्य प्रक्रिया है। यही परीक्षा पद्धति पक्षी की आंख पर ही निशाना साधने वाले अजरुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर घोषित करती है, लेकिन इसका उद्देश्य यह भी था कि कठिन को विद्यार्थी के भीतर तक आसानी से उतारा जा सके। 1द्रोणाचार्य के आश्रम में यह तय किया जा सके कि कौन पांडव किस शस्त्र विद्या को सीखने लायक है। आज के दौर में यह कितना हास्यास्पद है कि असमान बुद्धि, विवेक और मन वाले विद्यार्थियों को एक-समान विषय पढ़ने और रटने पड़ रहे हैं। चाहे उस छात्र की उस विषय में रुचि हो या नहीं।

Publish Date:Mon, 26 Feb 2018 11:18 AM (IST)
परीक्षा का कोई विकल्प नहीं, यह हर शिक्षा प्रणाली का अंतिम परिणाम है
परीक्षा का कोई विकल्प नहीं है। यह प्रत्येक शिक्षा प्रणाली का अंतिम परिणाम है। साथ ही शिक्षा प्राप्ति के बाद सफलता-असफलता का विभाजन करने वाली एक अनिवार्य प्रक्रिया है।
नई दिल्ली [शास्त्री कोसलेंद्रदास]। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते हफ्ते परीक्षा पर चर्चा कार्यक्रम चालू कर एक अनोखी शुरुआत की है। उस समस्या की ओर पूरे देश का ध्यान खींचा है, जिससे हमारा समाज बुरी तरह प्रभावित है। इस कार्यक्रम के परिणाम आने में भले जितना वक्त लगे, पर यह जरूरी है कि हमारे नौजवान विद्यार्थी आत्मघाती कदम उठाने से बचकर तनावमुक्त जीवन जी सकें। यह सोचना-विचारना आज की परिस्थिति में जरूरी है। हालात इतने खराब हो चुके हैं कि नरेंद्र मोदी जब इस कार्यक्रम में देश भर के स्कूली बच्चों को संबोधित कर रहे थे, उसी समय कोटा में एक कोचिंग इंस्टीट्यूट के छात्र द्वारा आत्महत्या कर लेने की खबर आई। 21 वर्षीय राहुल पिछले साल ही जैसलमेर से मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने कोटा आया था।
साल 2018 के शुरुआती डेढ़ महीनों में अकेले कोटा शहर में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों द्वारा आत्महत्या करने का यह पांचवां मामला है। घर-परिवार को बर्बाद करने वाली यह र्दुव्‍यवस्था पिछले दशकों में पूरे देश में इस कदर फैल गई कि हजारों बच्चे अपने जीवन को खत्म कर चुके हैं। पूरे देश में छात्र परीक्षा की सफलता और असफलता के भंवर में पड़कर तनाव तथा निराशा में माहौल में आत्महत्या कर रहे हैं। पूरे संसार को ज्ञान-विज्ञान सिखाने वाले भारत में सुरसा के मुंह के जैसी फैल रही इस दुर्घटना के कारणों में हमारी नई शिक्षा पद्धति की अपनी भूमिका भी है। सैद्धांतिक पढ़ाई को भरपूर महत्व दिया जा रहा है, जिसके नीचे प्रायोगिक (प्रैक्टिकल) समझ दब कर रह गई है। प्रायोगिक अध्ययन व्यवस्था लुप्त-सी हो गई है।
दो-तीन घंटे की परीक्षा में जिसने जो लिखा, वही उस विद्यार्थी के मूल्यांकन का मानक हो गया है। इसी के आधार पर उसकी श्रेणी या ग्रेड तय हो रही है। उसके जीवन और नौकरी का आधार भी यह मूल्यांकन ही है। साथ ही सरस प्रायोगिक अध्ययन व्यवस्था को अनुपयोगी कर पढ़ाई को इतना नीरस बना दिया गया है कि छात्र परिणाम केंद्रित होकर अपने जीवन को सिर्फ ‘रिजल्ट’ में ही खोज रहा है। यदि उसका थोड़ा मनोरंजन हो भी रहा है तो वह भी गिरते चरित्र के संवादों या फिल्मों से। यह कितना आश्चर्य है कि एक स्कूली छात्र के रोल में मलयाली अभिनेत्री प्रिया प्रकाश का ‘आंख मारना’ देश में बड़ी बात हो गई! जरा सोचिए कि क्या यह कामुकता भरा दृश्य विद्यालयों के हालात सुधारने में मददगार साबित होगा?
ऐसा नहीं है कि परीक्षा की कोई जरूरत नहीं है। परीक्षा का कोई विकल्प नहीं है। वह हर शिक्षा प्रणाली का अंतिम परिणाम है। परीक्षा प्राचीन गुरुकुल पद्धति से चली आ रही शिक्षा प्राप्ति के बाद श्रेष्ठ तथा अश्रेष्ठ का विभाजन करने वाली एक अनिवार्य प्रक्रिया है। यही परीक्षा पद्धति पक्षी की आंख पर ही निशाना साधने वाले अजरुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर घोषित करती है, लेकिन इसका उद्देश्य यह भी था कि कठिन को विद्यार्थी के भीतर तक आसानी से उतारा जा सके। 1द्रोणाचार्य के आश्रम में यह तय किया जा सके कि कौन पांडव किस शस्त्र विद्या को सीखने लायक है। आज के दौर में यह कितना हास्यास्पद है कि असमान बुद्धि, विवेक और मन वाले विद्यार्थियों को एक-समान विषय पढ़ने और रटने पड़ रहे हैं। चाहे उस छात्र की उस विषय में रुचि हो या नहीं।
कक्षा 10 तक तो यह लगभग आवश्यक ही है। जो इस मजबूरी के दलदल से मजबूती से निकल जाते हैं, वे सफल कहलाते हैं। जो इस परीक्षाई दलदल में फंस जाते हैं, उन्हें असफल आ अनुर्त्तीण कह दिया जाता है। असफल युवा अवसाद में होने से गहरे तनाव में आ जाते हैं और फिर वे जीवन को बोझ समझकर आत्मघाती कदम उठाने से भी नहीं चूकते। कदाचित यही व्यवस्था समाज में असमानता उत्पन्न कर रही है। विद्यार्थियों को कठिन का अभ्यास कराना पड़ेगा, पर यदि यह अभ्यास बच्चों के जीवन को ही समाप्त की ओर ले जाए तो हमें उसके लिए नए विकल्प तलाशने होंगे। जिससे उनमें परीक्षा की धुक-धुकी मिट सके। वे तनावमुक्त होकर परीक्षा के परिणाम को स्वीकार कर सकें।
यह भी बड़ा सवाल है कि शिक्षा के मौजूदा तंत्र में विद्यार्थी और शिक्षक दोनों ही पढ़ने तथा पढ़ाने के लिए विवश नहीं हैं। सरकारी विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। राष्ट्रीय शैक्षिक और अनुसंधान परिषद तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की लगातार दिमागी कसरतों के बाद भी शिक्षा के ढांचे के हालात काबू में नहीं आ पा रहे हैं। यह अप्रिय सत्य है कि शिक्षा केंद्रों में न तो शिक्षक पढ़ाने चाह रहे हैं और न ही छात्र पढ़ना चाह रहे हैं। इस व्यवस्था केंद्रित बीमारी को मिटाने के लिए केंद्र तथा राज्य सरकारों को आगे आने की सख्त जरूरत है। यह भी गंभीर समस्या है कि छात्र परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए नंबर पाना चाहता है तथा इसके लिए वह अवैध तरीके भी अपना लेता है। एक पूरा तंत्र डिग्रियों में हेराफेरी से लेकर नंबर बढ़ाने के भ्रष्टाचार में सक्रिय है।
ऐसा नहीं है कि इस विकट समस्या का कोई समाधान नहीं दिख रहा है। प्राचीन शिक्षा प्रणाली से लेकर आज तक परीक्षाएं होती आ रही हैं। फिर अभी ही हालात इतने क्यों बिगड़े कि हजारों की संख्या में छात्र आत्महत्याएं कर रहे हैं। याद कीजिए महाभारत में अजरुन का क्या यही हाल युद्ध शुरू होने के पहले नहीं हो गया था? तब श्रीकृष्ण ने उन्हें अवसाद से मुक्त होने के मार्ग सुझाए। उनमें खास हैं, ‘अपने गुरु को विनम्रता से श्रद्धापूर्वक प्रणाम करो। उनकी सेवा करो तथा उनसे सवाल करो। इन तीनों से प्रसन्न होकर ज्ञानी शिक्षक तुम्हें सिखाएंगे और तुम सारे तनावों से दूर होकर सफल हो जाओगे।’ क्या आज की आधुनिक शिक्षा में तीनों में से एक भी बच पाया है? ये शास्त्रीय तर्को की बातें नहीं, बल्कि शाश्वत सिद्धांत के तथ्य हैं, जिनसे दूर नहीं भागा जा सकता। हमें आज की शिक्षा प्रणाली में इन्हें शामिल करके आगे बढ़ना होगा जिससे हमारे बच्चे बच पाएं। पूरी तैयारी के साथ हमें आगे चलना होगा कि परीक्षा के भंवर में डूबने से हमारी पीढ़ियां बच सकें।

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